मानव सेवा संघ

परिचय :

मानव सेवा संघ मानवमात्र का अपना संघ है, जिसमें सभी मत, सम्प्रदाय एवं विचारधारा के भाई बहिन सम्मिलित होकर मानव जीवन के उद्देश्य को पूरा कर सकते है। संघ उन मौलिक सिद्वान्तो का प्रतीक है, जिनको अपनाकर प्रत्येक मानव अपना कल्याण करने में समर्थ है। मानवता बीज रूप से सभी में विद्यमान है और मानवता ही वास्तविक जीवन है। मानव सेवा संघ उसी जीवन की ओर मानव मात्र को प्रेरित करता है, जो जीवन अपने लिये,जगत के लिये और जगत्पति के लिये उपयोगी सिद्ध होता है। संघ प्रीति तथा साध्य की एकता में आस्था रखता है, और प्राप्त वस्तु,अवस्था, परिस्थिति आदि के सदुपयोग का पाठ पढाता है। मानव के जीवन को साधन युक्त बनाकर उसे विकास की ओर अग्रसर करना ही संघ का ध्येय है। प्रज्ञाचक्षु स्वामी श्री शरणानन्दजी द्वारा इस संघ की स्थापना वर्ष 1952 में मोक्षदा एकादशी के दिन की गयी थी।

यह एक रजिस्टर्ड संस्था है,जिसकी पंजीकृत संख्या 241/1953-1954, लखनउ है।

संस्था का आदर्श वाक्य :- मानवता में ही पूर्णता निहित है।

संस्था का लक्ष्य :- अपना कल्याण व सुन्दर समाज का निर्माण

संस्था का दृष्टिक्षेत्र :- मानव मात्र को यह विश्‍वास दिलाना कि प्रत्येक मानव उस जीवन को (जो किसी भी महामानव को मिला है) वर्तमान में ही पा सकता है।

संस्था का प्रतीक:-

 इसमें बाहरी वृत समाज का प्रतीक है। वृत के अंदर त्रिभुज -मानवता युक्त मानव का प्रतीक है। मानवता के तीन लक्षण-सेवा,त्याग,प्रेम। सूर्य-स्नेह की एकता का प्रतीक है। तीन अग्निशिखा तीन शक्तियो की प्रतीक हैं।

  • जल- निर्दोषता का प्रतीक है।
  • कमल- निरभिमानता का प्रतीक है।
  • ह्रदय- अपने अधिकार का त्याग तथा दूसरे के अधिकार की रक्षा का प्रतीक है।

मानवता के मूल सिद्धान्त :

  • आत्म-निरीक्षण, अर्थात्‌ प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना।
  • की हुई भूल को पुन: न दोहराने का व्रत लेकर, सरल विश्वासपूर्वक प्रार्थना करना।
  • विचार का प्रयोग अपने पर और विश्वास का दूसरों पर, अर्थात्‌ न्याय अपने पर और प्रेम तथा क्षमा अन्य पर।
  • जितेन्द्रियता, सेवा, भगवत चिन्तन और सत्य की खोज द्वारा अपना निर्माण।
  • दूसरों के कर्तव्य को अपना अधिकार, दूसरों की उदारता को अपना गुण और दूसरों की निर्बलता को अपना बल, न मानना।
  • पारिवारिक तथा जातीय सम्बन्ध न होते हुए भी, पारिवारिक भावना के अनुरुप ही पारस्परिक सम्बोधन तथा सद्भाव, अर्थात्‌ कर्म की भिन्नता होने पर भी स्नेह की एकता।
  • निकटवर्ती जन-समाज की यथाशक्ति क्रियात्मक रुप से सेवा करना।
  • शारीरिक हित की दृष्टि से आहार-विहा‌र में संयम तथा दैनिक कार्यों में स्वावलम्बन।
  • शरीर श्रमी, मन संयमी, बुद्धि विवेकवती, हृदय अनुरागी तथा अहम्‌ को अभिमान शून्य करके अपने को सुन्दर बनाना।
  • सिक्के से वस्तु, वस्तु से व्यक्ति, व्यक्ति से विवेक तथा विवेक से सत्य को अधिक महत्व देना।
  • व्यर्थ-चिन्तन-त्याग तथा वर्तमान के सदुपयोग द्वारा भविष्य को उज्जवल बनाना।